Friday, July 05, 2013

Hazaron kwhahishein aisi....

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

मोहब्बत में नहीं हैं फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

डरे क्यों मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून, जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कुचे से हम निकले

हुई जिनसे तवक्को खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज्यादा ख़स्त-ए-तेघ-ए-सितम निकले

खुदा के वास्ते परदा ना काबे से उठा ज़ालिम
कहीं ऐसा ना हो याँ भी वही काफ़िर सनम निकले

कहाँ मयखाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले